बुधवार, 26 मार्च 2008

आदिवासियों की आय का जरिया बना पशुपालन (सफलता की कहानी)

आदिवासियों की आय का जरिया बना पशुपालन (सफलता की कहानी)
26 मार्च,08/मध्यप्रदेश में ग्रामीण आजीविका परियोजना के माध्यम से पशुधन विकास पर विशेष जोर दिया जा रहा है। पशुपालन ग्रामीण क्षेत्र विशेषकर आदिवासी क्षेत्र में रोजगार का प्रमुख जरिया बन चुका है। ग्रामीण आजीविका परियोजना के तहत श्योंपुर जिले के 60 सबसे पिछड़े आदिवासी बहुल्य ग्रामों में 102 आदिवासियों को 539 बकरियां, 342 बैल जोड़ी का वितरण किया गया तथा 60 पशुओं का कृत्रिम गर्भाधान और 25 हजार 701 पशुओं का टीकाकरण किया गया। ये सभी हितग्राही आदिवासी हैं। ग्रामीण आजीविका परियोजना में ग्राम सभा के माध्यम से आदिवासियों की रुझान के अनुरूप 102 हितग्राहियों को 5-5 बकरियां वितरित की गईं। जिले के लघु एवं सीमांत कृषक परिवारों को 342 बैल जोड़ी भी दी गईं।
श्योपुर जिले के इन आदिवासी परिवारों के पास जमीन तो थी, मगर बैल न होने के कारण ये अपनी जमीन की जुताई किराये से करवाते थे। जुताई के लिये अधिक ब्याज पर साहूकारों से ऋण लेकर यह लोग जुताई की राशि का भुगतान करते थे। बैल जोड़ी प्रदाय करने से अब इन्हें साहूकारों के चक्कर नहीं लगाने पड़ते, जिससे इनकी आमदनी में वृध्दि होने लगी है।
इसी परियोजना के माध्यम से पशुओं की नस्ल सुधार का अभियान चलाया जा रहा है। स्वयंसेवी संस्था बायफ के माध्यम से जिले में 6 पशुधन विकास केन्द्र स्थापित किये गये हैं। इन केन्द्रों पर गाय हेतु जर्सी होलिस्टिन फीशियन और गिर सांडों के वीर्य, भैंस हेतु मुर्रा जाति के पाड़ों के वीर्य उपलब्ध कराये जाते हैं। कृत्रिम गर्भाधान का उद्देश्य नस्ल सुधार के अलावा दुग्ध उत्पादन बढ़ाना भी है। अभी तक 60 मादा पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान करवाकर 6 वत्सों का जन्म हो चुका है।
ग्रामीण आजीविका परियोजना के अंतर्गत स्वयंसेवी संस्था के माध्यम से गलाघोंटू, एकटंगीय, मुँहपका तथा इंटर टोक्सुमियां का टीकाकरण किया जा रहा है। अभी तक 25 हजार 701 पशुओं का टीकाकरण हो चुका है।

कोई टिप्पणी नहीं: